Thursday, March 27, 2014


Friday, January 4, 2013

घाटी में संघर्ष विराम


केसर घाटी में आतंकी शोर सुनाई देता है हिजबुल लश्कर के नारों का जोर सुनाई देता है मलय समीरा मौसम आदमखोर दिखायी देता है लालकिले का भाषण भी कमजोर दिखायी देता है भारत गाँधी गौतम का आलोक था कलिंग विजय से ऊबा हुआ अशोक था अब ये जलते हुए पहाड़ों का घर है बारूदी आकाश हमारे सर पर है इन कोहराम भरी रातों का ढ़लना बहुत जरुरी है घोर तिमिर में शब्द-ज्योति का जलना बहुत जरुरी है मैं युगबोधी कलमकार का धरम नहीं बिकने दूंगा चाहे मेरा सर कट जाये कलम नहीं बिकने दूंगा इसीलिए केवल अंगार लिए फिरता हूँ वाणी में आंसू से भीगा अखबार लिए फिरता हूँ वाणी में ये जो भी आतंकों से समझौते की लाचारी है ये दरबारी कायरता है आपराधिक गद्दारी है ये बाघों का शरण-पत्र है भेड़, शियारों के आगे वटवृक्षों का शीश नमन है खरपतवारों के आगे हमने डाकू तस्कर आत्मसमर्पण करते देखे थे सत्ता के आगे बंदूकें अर्पण करते देखे थे लेकिन अब तो सिंहासन का आत्मसमर्पण देख लिया अपने अवतारों के बौने कद का दर्पण देख लिया जैसे कोई ताल तलैया गंगा-यमुना को डांटे एक तमंचा मार रहा है एटम के मुँह पर चाटें जैसे एक समन्दर गागर से चुल्लू भर जल मांगे ऐसे घुटने टेक रहा है सूरज जुगनू के आगे ये कैसा परिवर्तन है खुद्दारी के आचरणों में संसद का सम्मान पड़ा है चरमपंथ के चरणों में किसका खून नहीं खोलेगा पढ़-सुनकर अखबारों में सिंहों की पेशी करवा दी चूहों के दरबारों में हिजबुल देश नहीं हत्यारी टोली है साजिश के षड्यंत्रों की हमजोली है जब तक इनका काम तमाम नहीं होता उग्रवाद से युद्धविराम नहीं होता दृढ़ संकल्पों की पतवार लिये फिरता हूँ वाणी में चंदरबरदायी ललकार लिये फिरता हूँ वाणी में इसीलिए केवल अंगार लिये फिरता हूँ वाणी में जो घाटी में खड़े हुयें हैं हत्यारों की टोली में खूनी छींटे छिड़क रहे हैं आँगन द्वार रंगोली में जो पैरों से रौंद रहे हैं भारत की तस्वीरों को गाली देते हैं ग़ालिब को तुलसी, मीर, कबीरों को उनके पैरों बेड़ी जकड़ी जाना शेष अभी भी है उनके फन पर ऐड़ी - रगड़ी जाना शेष अभी भी है जिन लोगों ने गोद लिया है जिन्ना की परिपाटी को दुनिया में बदनाम किया है पूजित पावन माटी को जिन लोगों ने कभी तिरंगे का सम्मान नहीं सीखा अपनी जननी जन्मभूमि का गौरवगान नहीं सीखा जिनके कारण अपहरणों की स्वर्णमयी आजादी है रोज गौडसे की गोली के आगे कोई गाँधी है जिन लोगों का पाप खुदा भी माफ़ नहीं कर सकते हैं जिनका दामन सात समन्दर साफ़ नहीं कर सकते हैं जो दुश्मन के हित के पहरेदार बताएं जाते हैं जो सौ - सौ लाशों के जिम्मेदार बताये जाते हैं जो भारत के गुनाहगार हैं फांसी के अधिकारी हैं आज उन्हीं से शांतिवार्ता करने की तयारी है जिन लोगों ने संविधान पर थूका है और हिन्द का अमर तिरंगा फूंका है दिल्ली उनसे हाथ मिलाने वाली है ये भारत के स्वाभिमान को गाली है इस लाचारी को धिक्कार लिये फिरता हूँ वाणी में तीखे शब्दों की तलवार लिये फिरता हूँ वाणी में इसीलिए केवल अंगार लिये फिरता हूँ वाणी में हर संकट का हल मत पूछो, आसमान के तारों से सूरज किरणें नहीं मांगता नभ के चाँद-सितारों से सत्य कलम की शक्ति पीठ है राजधर्म पर बोलेगी वर्तमान के अपराधों को समयतुला पर तोलेगी पांचाली के चीर हरण पर जो चुप पाए जायेंगे इतिहासों के पन्नों में वे सब कायर कहलायेंगे बंदूकों की गोली का उत्तर सद्भाव नहीं होता हत्यारों के लिए अहिंसा का प्रस्ताव नहीं होता ये युद्धों का परम सत्य है सारा जगत जानता है लोहा और लहू जब लड़ते हैं तो लहू हारता है जो खूनी दंशों को सहने वाला राजवंश होगा या तो परम मूर्ख होगा या कोई परमहंस होगा आतंकों से लड़ने के संकल्प कड़े करने होंगे हत्यारे हाथों से अपने हाथ बड़े करने होंगे कोई विषधर कभी शांति के बीज नहीं बो सकता है एक भेडिया शाकाहारी कभी नहीं हो सकता है हमने बावन साल खो दिए श्वेत कपोत उड़ाने में खूनी पंजों के गिद्धों को गायत्री समझाने में एक बार बस एक बार इन अभियानों को झटका दो लाल चौक में देशद्रोहियों को सूली पर लटका दो हर समझौता चक्रव्यूह बन जाता है बार-बार अभिमन्यु मारा जाता है अब दिल्ली सेना के हाथ नहीं बांधे अर्जुन से बोलो गांडीव धनुष साधे घायल घाटी का उपचार लिए फिरता हूँ वाणी में बोस-पटेलों की दरकार लिए फिरता हूँ वाणी में इसीलिए केवल अंगार लिए फिरता हूँ वाणी में शिव-शंकर जी की धरती ने कितना दर्द सहा होगा जब भोले बाबा के भक्तों का भी खून बहा होगा दिल दहलाती हैं करतूतें रक्षा करने वालों की आँखों में आंसू लाती हैं हालत मरने वालों की काश्मीर के राजभवन से आज भरोसे टूट लिये लाशों के चूड़ी कंगन भी पुलिसबलों ने लूट लिये ये जो ऑटोनोमी वाला राग अलापा जाता है गैरों के घर भारत माँ का दामन नापा जाता है ये जो कागज के शेरों की तरह दहाडा जाता है गड़े हुए मुर्दों को बारम्बार उखाड़ा जाता है इस नौटंकी का परदा हट जाना बहुत लाजमी है जाफर जयचंदों का सर कट जाना बहुत लाजमी है कोई सपना ना देखे हम देश बाँट कर दे देंगे हाथ कटाए बैठे हैं अब शीश काटकर दे देंगे शेष बचा कश्मीर हमारे श्रीकृष्ण की गीता है सैंतालिस में चोरी जाने वाली पावन सीता है अगर राम का सीता को वापस पाना मजबूरी है तो पाकिस्तानी रावण का मरना बहुत जरुरी है धरती-अम्बर और समन्दर से कह दो दुनिया के हर पञ्च सिकन्दर से कह दो कोई अपना खुदा नहीं हो सकता है काश्मीर अब जुदा नहीं हो सकता है अपना कश्मीरी अधिकार लिए फिरता हूँ वाणी में अपनी भारत माँ का प्यार लिए फिरता हूँ वाणी में इसीलिए केवल अंगार लिए फिरता हूँ वाणी में - डॉ हरिओम पंवार

Sunday, November 4, 2012

मैंने क्यूँ गाये हैं नारे


मैंने क्यूँ गाये हैं नारे
मैंने जो कुछ भी गाया है तुम उसको नारे बतलाओ
मुझे कोई परवाह नहीं है मुझको नारेबाज बताओ
लेकिन मेरी मजबूरी को तुमने कब समझा है प्यारे |
लो तुमको बतला देता हूँ मैंने क्यूँ गाये हैं नारे ||
जब दामन बेदाग न हो जी
अंगारों में आग न हो जी
घूँट खून के पीना हो जी
जिस्म बेचकर जीना हो जी
मेहनतकश मजदूरों का भी
जब बदनाम पसीना हो जी
जनता सुना रही हो नारे
संसद भुना रही हो नारे
गम का अँगना दर्द बुहारे
भूखा बचपन चाँद निहारे
कोयल गाना भूल रही हो
ममता फाँसी झूल रही हो
मावस के डर से भय खाकर,
पूनम चीख़े और पुकारे
हो जाएँ अधिकार तुम्हारे
रह जाएँ कर्तव्य हमारे
छोड़ - छाड़ जीवन-दर्शन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
निर्वाचन लड़ते हैं नारे
चांटे से जड़ते हैं नारे
सत्ता की दस्तक हैं नारे
कुर्सी का मस्तक हैं नारे
गाँव-गली, शहरों में नारे,
सागर की लहरों में नारे
केसर की क्यारी में नारे
घर की फुलवारी में नारे
सर पर खड़े हुए हैं नारे,
दाएँ अड़े हुए हैं नारे
नारों के नीचे हैं नारे
नारों के पीछे हैं नारे
जब नारों को रोज पचाने
को खाने पड़ते हों नारे
इन नारों से जान बचाने
को लाने पड़ते हों नारे
छोड़ गीत के सम्मोहन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
जब चन्दामामा रोता हो
सूरज अँधियारा बोता हो
जीवन सूली-सा हो जाये,
गाजर-मूली सा हो जाये,
पूरब ज़ार-ज़ार हो जाये
पश्चिम को आरक्षण खाए
उत्तर का अलगावी स्वर हो
दक्षिण में भाषा का ज्वर हो
अपने बेगाने हो जायें
घर में ही काँटे बो जायें,
मानचित्र को काट रहे हों
भारत माँ को बाँट रहे हों
ग़ैर तिरंगा फाड़ रहे हों
अपने झण्डे गाड़ रहे हों,
जब सीने पर ही आ बैठें
भारत माता के हत्यारे
छोड़ - छाड़कर सूर-कबीरा तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
कलियाँ खिलने से घबरायें
भौंरे आवारा हो जायें
फूल खिले हों पर उदास हों,
पहरे उनके आस-पास हों
पायल सहम-सहम कर नाचे,
पाखण्डी रामायण बाँचे
कूटनीति में सब चलता हो,
मर्यादा का मन जलता हो
उल्लू गुलशन का माली हो
पहरेदारी भी जाली हो
संयम मौन साध बैठा हो
झूठ कुर्सियों पर ऐंठा हो
चापलूस हों दरबारों में,
ख़ुद्दारी हो मझ्धारों में
बलिदानी हों हारे-हारे,
डाकू भी लगते हों प्यारे
छोड़ चरित्रों की रामायण तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
डॉ. हरिओम पंवार

Monday, October 1, 2012

हाँ हुजूर मै चीख रहा हूँ


हाँ हुजूर मै चीख रहा हूँ हाँ हुजूर मै चिल्लाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
मेरा कोई गीत नहीं है किसी रूपसी के गालों पर
मैंने छंद लिखे हैं केवल नंगे पैरों के छालों पर
मैंने सदा सुनी है सिसकी मौन चांदनी की रातों में
छप्पर को मरते देखा है रिमझिम- रिमझिम बरसातों में
आहों कि अभिव्यक्ति रहा हूँ
कविता में नारे गाता हूँ
मै सच्चे शब्दों का दर्पण
संसद को भी दिखलाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
अवसादों के अभियानों से वातावरण पड़ा है घायल
वे लिखते हैं गजरे, कजरे, शबनम, सरगम, मेंहदी, पायल
वे अभिसार पढ़ाने बैठे हैं पीड़ा के सन्यासी को
मैं कैसे साहित्य समझ लूँ कुछ शब्दों कि अय्याशी को
मै भाषा में बदतमीज हूँ
अलंकार को ठुकराता हूँ
और गीत के व्यकरानो के
आकर्षण से कतराता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
दिन ढलते ही जिन्हें लुभाएँ वेशालय औ' मधुशालाएँ
माँ वाणी के अपराधी हैं चाहे महाकवि ही कहलायें
अपराधों की अभिलाषाएं मौन चाँदनी कि मस्ती में
जैसे कोई फूल बेचता हो भूखी-नंगी बस्ती में
मैं शब्दों को बजा-बजा कर
घुंघुरू नहीं बना पता हूँ
मै तो पांचजन्य का गर्जन
जनगण-मन तक पहुँचाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
जिनके गीतों कि जननी है महबूबा कि हँसी- उदासी
उनको रास नहीं आ सकते ऊधमसिंह औ' रानी झाँसी
मुझसे ज्यादा मत खुलवाओ इन सिद्धों के आवरणों को
इससे तो अच्छा है पढ़ लो तुम गिद्धों के आचरणों को
मै अपनी कविता के तन पर
गजरे नहीं सजा पता हूँ
अमर शहीदों कि यादों से
मै कविता को महकता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ

Monday, August 22, 2011

घाटी के दिल की धड़कन

घाटी के दिल की धड़कन
काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की रजधानी था
डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था
काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था
जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था
काश्मीर जो भारतमाता की आँखों का तारा था
काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों से प्यारा था
काश्मीर वो डूब गया है अंधी-गहरी खाई में
फूलों की खुशबू रोती है मरघट की तन्हाई में

ये अग्नीगंधा मौसम की बेला है
गंधों के घर बंदूकों का मेला है
मैं भारत की जनता का संबोधन हूँ
आँसू के अधिकारों का उदबोधन हूँ
मैं अभिधा की परम्परा का चारण हूँ
आजादी की पीड़ा का उच्चारण हूँ

इसीलिए दरबारों को दर्पण दिखलाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

बस नारों में गाते रहियेगा कश्मीर हमारा है
छू कर तो देखो हिम छोटी के नीचे अंगारा है
दिल्ली अपना चेहरा देखे धूल हटाकर दर्पण की
दरबारों की तस्वीरें भी हैं बेशर्म समर्पण की

काश्मीर है जहाँ तमंचे हैं केसर की क्यारी में
काश्मीर है जहाँ रुदन है बच्चों की किलकारी में
काश्मीर है जहाँ तिरंगे झण्डे फाड़े जाते हैं
सैंतालिस के बंटवारे के घाव उघाड़े जाते हैं
काश्मीर है जहाँ हौसलों के दिल तोड़े जाते हैं
खुदगर्जी में जेलों से हत्यारे छोड़े जाते हैं

अपहरणों की रोज कहानी होती है
धरती मैया पानी-पानी होती है
झेलम की लहरें भी आँसू लगती हैं
गजलों की बहरें भी आँसू लगती हैं

मैं आँखों के पानी को अंगार बनाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

काश्मीर है जहाँ गर्द में चन्दा-सूरज- तारें हैं
झरनों का पानी रक्तिम है झीलों में अंगारे हैं
काश्मीर है जहाँ फिजाएँ घायल दिखती रहती हैं
जहाँ राशिफल घाटी का संगीने लिखती रहती हैं
काश्मीर है जहाँ विदेशी समीकरण गहराते हैं
गैरों के झण्डे भारत की धरती पर लहरातें हैं

काश्मीर है जहाँ देश के दिल की धड़कन रोती है
संविधान की जहाँ तीन सौ सत्तर अड़चन होती है
काश्मीर है जहाँ दरिंदों की मनमानी चलती है
घर-घर में ए. के. छप्पन की राम कहानी चलती है
काश्मीर है जहाँ हमारा राष्ट्रगान शर्मिंदा है
भारत माँ को गाली देकर भी खलनायक जिन्दा है
काश्मीर है जहाँ देश का शीश झुकाया जाता है
मस्जिद में गद्दारों को खाना भिजवाया जाता है

गूंगा-बहरापन ओढ़े सिंहासन है
लूले - लंगड़े संकल्पों का शासन है
फूलों का आँगन लाशों की मंडी है
अनुशासन का पूरा दौर शिखंडी है

मै इस कोढ़ी कायरता की लाश उठाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

हम दो आँसू नहीं गिरा पाते अनहोनी घटना पर
पल दो पल चर्चा होती है बहुत बड़ी दुर्घटना पर
राजमहल को शर्म नहीं है घायल होती थाती पर
भारत मुर्दाबाद लिखा है श्रीनगर की छाती पर
मन करता है फूल चढ़ा दूं लोकतंत्र की अर्थी पर
भारत के बेटे निर्वासित हैं अपनी ही धरती पर

वे घाटी से खेल रहे हैं गैरों के बलबूते पर
जिनकी नाक टिकी रहती है पाकिस्तानी जूतों पर
काश्मीर को बँटवारे का धंधा बना रहे हैं वो
जुगनू को बैसाखी देकर चन्दा बना रहे हैं वो
फिर भी खून-सने हाथों को न्योता है दरबारों का
जैसे सूरज की किरणों पर कर्जा हो अँधियारों का

कुर्सी भूखी है नोटों के थैलों की
कुलवंती दासी हो गई रखैलों की
घाटी आँगन हो गई ख़ूनी खेलों की
आज जरुरत है सरदार पटेलों की

मैं घाटी के आँसू का संत्रास मिटाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

जब चौराहों पर हत्यारे महिमा-मंडित होते हों
भारत माँ की मर्यादा के मंदिर खंडित होते हों
जब क्रश भारत के नारे हों गुलमर्गा की गलियों में
शिमला-समझौता जलता हो बंदूकों की नालियों में

अब केवल आवश्यकता है हिम्मत की खुद्दारी की
दिल्ली केवल दो दिन की मोहलत दे दे तैय्यारी की
सेना को आदेश थमा दो घाटी ग़ैर नहीं होगी
जहाँ तिरंगा नहीं मिलेगा उनकी खैर नहीं होगी

जिनको भारत की धरती ना भाती हो
भारत के झंडों से बदबू आती हो
जिन लोगों ने माँ का आँचल फाड़ा हो
दूध भरे सीने में चाकू गाड़ा हो

मैं उनको चौराहों पर फाँसी चढ़वाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन गाने निकला हूँ ||

अमरनाथ को गाली दी है भीख मिले हथियारों ने
चाँद-सितारे टांक लिये हैं खून लिपि दीवारों ने
इसीलियें नाकाम रही हैं कोशिश सभी उजालों की
क्योंकि ये सब कठपुतली हैं रावलपिंडी वालों की
अंतिम एक चुनौती दे दो सीमा पर पड़ोसी को
गीदड़ कायरता ना समझे सिंहो की ख़ामोशी को

हमको अपने खट्टे-मीठे बोल बदलना आता है
हमको अब भी दुनिया का भूगोल बदलना आता है
दुनिया के सरपंच हमारे थानेदार नहीं लगते
भारत की प्रभुसत्ता के वो ठेकेदार नहीं लगते
तीर अगर हम तनी कमानों वाले अपने छोड़ेंगे
जैसे ढाका तोड़ दिया लौहार-कराची तोड़ेंगे

आँख मिलाओ दुनिया के दादाओं से
क्या डरना अमरीका के आकाओं से
अपने भारत के बाजू बलवान करो
पाँच नहीं सौ एटम बम निर्माण करो

मै भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने निकला हूँ |
मैं घायल घाटी के दिल की धड़कन निकला हूँ ||

Saturday, June 25, 2011

शब्द - चित्र हूँ मैं वर्तमान का आइना हूँ चोट के निशान का मै धधकते आज की जुबान हूँ मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ

मेरा गीत चाँद है ना चाँदनी
न किसी के प्यार की है रागिनी
हंसी भी नही है माफ कीजिये
खुशी भी नही है माफ कीजिये
शब्द - चित्र हूँ मैं वर्तमान का
आइना हूँ चोट के निशान का
मै धधकते आज की जुबान हूँ
मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ

कोइ न डराए हमे कुर्सी के गुमान से
और कोइ खेले नही कलम के स्वाभिमान से
हम पसीने की कसौटियों के भोजपत्र हैं
आंसू - वेदना के शिला- लेखों के चरित्र हैं
हम गरीबों के घरों के आँसुओं की आग हैं
आन्धियों के गाँव मे जले हुए चिराग हैं

किसी राजा या रानी के डमरु नही हैं हम
दरबारों की नर्तकी के घुन्घरू नही हैं हम
सत्ताधीशों की तुला के बट्टे भी नही हैं हम
कोठों की तवायफों के दुपट्टे भी नही हैं हम
अग्निवंश की परम्परा की हम मशाल हैं
हम श्रमिक के हाथ मे उठी हुई कुदाल हैं
ये तुम्हारी कुर्सियाँ टिकाऊ नही हैं कभी
औ हमारी लेखनी बिकाऊ नही है कभी
राजनीति मे बडे अचम्भे हैं जी क्या करें
हत्यारों के हाथ बडे लम्बे हैं जी क्या करें
आज ऐरे गैरे- भी महान बने बैठे हैं
जाने- माने गुंडे संविधान बने बैठे हैं

आज ऐसे - ऐसे लोग कुर्सी पर तने मिले
जिनके पूरे - पूरे हाथ खून मे सने मिले
डाकु और वर्दियों की लाठी एक जैसी है
संसद और चम्बल की घाटी एक जैसी है
दिल्ली कैद हो गई है आज उनकी जेब मे
जिनसे ज्यादा खुद्दारी है कोठे की पाजेब मे

दरबारों के हाल- चाल न पूछो घिनौने हैं
गद्दियों के नीचे बेइमानी के बिछौने हैं
हम हमारा लोकतन्त्र कहते हैं अनूठा है
दल- बदल विरोधी कानूनो को ये अंगूठा है
कभी पन्जा , कभी फूल, कभी चक्कर धारी हैं
कभी वामपन्थी कभी हाथी की सवारी हैं

आज सामने खडे हैं कल मिलेंगे बाजू मे
रात मे तुलेंगे सूटकेशों की तराजू मे
आत्मायें दल बदलने को ऐसे मचलती हैं
ज्यों वेश्यांये बिस्तरों की चादरें बदलती हैं
उनकी आरती उतारो वे बडे महान हैं
जिनकी दिल्ली मे दलाली की बडी दुकान है

ये वो घडियाल हैं जो सिन्धु मे भी सूखें हैं
सारा देश खा चुके हैं और अभी भूखे हैं
आसमा के तारे आप टूटते देखा करो
देश का नसीब है ये फूटते देखा करो
बोलना छोडो खामोशी का समय है दोस्तो
डाकुओं की ताजपोशी का समय है दोस्तो
हरिओम पवार

Sunday, June 19, 2011