Sunday, November 4, 2012

मैंने क्यूँ गाये हैं नारे


मैंने क्यूँ गाये हैं नारे
मैंने जो कुछ भी गाया है तुम उसको नारे बतलाओ
मुझे कोई परवाह नहीं है मुझको नारेबाज बताओ
लेकिन मेरी मजबूरी को तुमने कब समझा है प्यारे |
लो तुमको बतला देता हूँ मैंने क्यूँ गाये हैं नारे ||
जब दामन बेदाग न हो जी
अंगारों में आग न हो जी
घूँट खून के पीना हो जी
जिस्म बेचकर जीना हो जी
मेहनतकश मजदूरों का भी
जब बदनाम पसीना हो जी
जनता सुना रही हो नारे
संसद भुना रही हो नारे
गम का अँगना दर्द बुहारे
भूखा बचपन चाँद निहारे
कोयल गाना भूल रही हो
ममता फाँसी झूल रही हो
मावस के डर से भय खाकर,
पूनम चीख़े और पुकारे
हो जाएँ अधिकार तुम्हारे
रह जाएँ कर्तव्य हमारे
छोड़ - छाड़ जीवन-दर्शन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
निर्वाचन लड़ते हैं नारे
चांटे से जड़ते हैं नारे
सत्ता की दस्तक हैं नारे
कुर्सी का मस्तक हैं नारे
गाँव-गली, शहरों में नारे,
सागर की लहरों में नारे
केसर की क्यारी में नारे
घर की फुलवारी में नारे
सर पर खड़े हुए हैं नारे,
दाएँ अड़े हुए हैं नारे
नारों के नीचे हैं नारे
नारों के पीछे हैं नारे
जब नारों को रोज पचाने
को खाने पड़ते हों नारे
इन नारों से जान बचाने
को लाने पड़ते हों नारे
छोड़ गीत के सम्मोहन को तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
जब चन्दामामा रोता हो
सूरज अँधियारा बोता हो
जीवन सूली-सा हो जाये,
गाजर-मूली सा हो जाये,
पूरब ज़ार-ज़ार हो जाये
पश्चिम को आरक्षण खाए
उत्तर का अलगावी स्वर हो
दक्षिण में भाषा का ज्वर हो
अपने बेगाने हो जायें
घर में ही काँटे बो जायें,
मानचित्र को काट रहे हों
भारत माँ को बाँट रहे हों
ग़ैर तिरंगा फाड़ रहे हों
अपने झण्डे गाड़ रहे हों,
जब सीने पर ही आ बैठें
भारत माता के हत्यारे
छोड़ - छाड़कर सूर-कबीरा तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
कलियाँ खिलने से घबरायें
भौंरे आवारा हो जायें
फूल खिले हों पर उदास हों,
पहरे उनके आस-पास हों
पायल सहम-सहम कर नाचे,
पाखण्डी रामायण बाँचे
कूटनीति में सब चलता हो,
मर्यादा का मन जलता हो
उल्लू गुलशन का माली हो
पहरेदारी भी जाली हो
संयम मौन साध बैठा हो
झूठ कुर्सियों पर ऐंठा हो
चापलूस हों दरबारों में,
ख़ुद्दारी हो मझ्धारों में
बलिदानी हों हारे-हारे,
डाकू भी लगते हों प्यारे
छोड़ चरित्रों की रामायण तब लिखने पड़ते हैं नारे |
इसीलिए गाता हूँ नारे इसीलिए लिखता हूँ नारे ||
डॉ. हरिओम पंवार

Monday, October 1, 2012

हाँ हुजूर मै चीख रहा हूँ


हाँ हुजूर मै चीख रहा हूँ हाँ हुजूर मै चिल्लाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
मेरा कोई गीत नहीं है किसी रूपसी के गालों पर
मैंने छंद लिखे हैं केवल नंगे पैरों के छालों पर
मैंने सदा सुनी है सिसकी मौन चांदनी की रातों में
छप्पर को मरते देखा है रिमझिम- रिमझिम बरसातों में
आहों कि अभिव्यक्ति रहा हूँ
कविता में नारे गाता हूँ
मै सच्चे शब्दों का दर्पण
संसद को भी दिखलाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
अवसादों के अभियानों से वातावरण पड़ा है घायल
वे लिखते हैं गजरे, कजरे, शबनम, सरगम, मेंहदी, पायल
वे अभिसार पढ़ाने बैठे हैं पीड़ा के सन्यासी को
मैं कैसे साहित्य समझ लूँ कुछ शब्दों कि अय्याशी को
मै भाषा में बदतमीज हूँ
अलंकार को ठुकराता हूँ
और गीत के व्यकरानो के
आकर्षण से कतराता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
दिन ढलते ही जिन्हें लुभाएँ वेशालय औ' मधुशालाएँ
माँ वाणी के अपराधी हैं चाहे महाकवि ही कहलायें
अपराधों की अभिलाषाएं मौन चाँदनी कि मस्ती में
जैसे कोई फूल बेचता हो भूखी-नंगी बस्ती में
मैं शब्दों को बजा-बजा कर
घुंघुरू नहीं बना पता हूँ
मै तो पांचजन्य का गर्जन
जनगण-मन तक पहुँचाता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ
जिनके गीतों कि जननी है महबूबा कि हँसी- उदासी
उनको रास नहीं आ सकते ऊधमसिंह औ' रानी झाँसी
मुझसे ज्यादा मत खुलवाओ इन सिद्धों के आवरणों को
इससे तो अच्छा है पढ़ लो तुम गिद्धों के आचरणों को
मै अपनी कविता के तन पर
गजरे नहीं सजा पता हूँ
अमर शहीदों कि यादों से
मै कविता को महकता हूँ
क्योंकि हमेशा मैं भूखी अंतड़ियों कि पीड़ा गाता हूँ